रात के पौने ग्यारह, काली रात में चमकता सिर्फ एक सितारा, कि सिर्फ तुम अकेली नहीं हो।
हवा ठंडी, मंद और खामोश, तन के रोम रोम को छूकर गुज़रती हुई, एक एक बाल को छेड़कर जाती हुई, आहिस्ता आहिस्ता, जैसे कह रही हो शुक्र मानो कि अब भी कुछ बातों पर इंसान का ज़ोर नहीं चलता।
हर ओर रौशनी की चौन्ध फिर भी आसमान काला ही रह गया है। लाख कोशिशें हों लेकिन कुछ चीज़ें छुपती नहीं हैं।
प्रेम शायद एक अनायास पड़ा थप्पड़ है, इंसान को जो न कुछ याद रहने दे और न कुछ भूलने दे बस झकझोर दे भीतर तक, कि खुली आँखों से देख सकें खुदा और कुदरत के हाथ खुद को कठपुतली बने हुए।
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दिल के मौसम में
तन्हाई की गर्मियाँ उतरते ही
जाग उठी हैं छिपकलियां
तुम्हारी याद की
रेंगती फिर रही हैं
इंतज़ार के हर कोने तक
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आसमान में छूट गई है
एक क़तरा धूप
बादलों के घिरने के बावजूद
एक तुम हो
कोई ज़र्रा भी नहीं छोड़ा
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हालाँकि मुझे मालूम है
नहीं पहुँच पाती
मेरे होंठों की नर्मी तुम्हारे गालों तक
मगर न जाने कैसे
तुम ये जान जाते हो
तुम्हारी तस्वीर को चूमा था
मेरी आँखों ने अभी-अभी
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काश तस्वीरों की तरह कभी ज़िन्दगी को भी क्रॉप किया जा सकता।